आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है
जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है
अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है
ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है
आँख से आँख मिला बात बनाता क्यूँ है
तू अगर मुझसे ख़फ़ा है तो छुपाता क्यूँ है
ग़ैर लगता है न अपनों की तरह मिलता है
तू ज़माने की तरह मुझको सताता क्यूँ है
वक़्त के साथ ख़यालात बदल जाते हैं
ये हक़ीक़त है मगर मुझको सुनाता क्यूँ है
एक मुद्दत से जहां काफ़िले गुज़रे ही नहीं
ऐसी राहों पे चराग़ों को जलाता क्यूँ है !!
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रेंग रहे हैं साये अब वीराने में !
धूप उतर आई कैसे तहख़ाने में !
जाने कब तक गहराई में डूबूँगा !
तैर रहा है अक्स कोई पैमाने में !
उस मोती को दरिया में फेंक आया हूँ !
मैं ने सब कुछ खोया जिसको पाने में !
हम प्यासे हैं ख़ुद अपनी कोताही से !
देर लगाई हम ने हाथ बढ़ाने में !
क्या अपना हक़ है हमको मालूम नहीं !
उम्र गुज़ारी हम ने फ़र्ज़ निभाने में !
वो मुझ को आवारा कहकर हँसते हैं !
मैं भटका हूँ जिनको राह पे लाने में !
कब समझेगा मेरे दिल का चारागर !
वक़्त लगेगा ज़ख्मों को भर जाने में !
हँस कर कोई ज़ह्र नहीं पीता आलम !
किस को अच्छा लगता है मर जाने में !!
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हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
कोई तालिब कोई मतलूब नहीं होता है
अब तो पहली सी वह तहज़ीब की क़दरें न रहीं
अब किसी से कोई मरऊब नहीं होता है
अब गरज़ चारों तरफ पाँव पसारे है खड़ी
अब किसी का कोई महबूब नहीं होता है
कितने ईसा हैं मगर अम्न-व-मुहब्बत के लिये
अब कहीं भी कोई मस्लूब नहीं होता है
पहले खा लेता है वह दिल से लड़ाई में शिकस्त
वरना यूँ ही कोई मजज़ूब नहीं होता है !!
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