इंसानियत तो एक है मजहब अनेक है
ये ज़िन्दगी इसको जीने के मक़सद अनेक है
ना खाई ठोकरे वो रह गया नाकाम
ठोकरे खाकर सँभलने वाले अनेक हैं
ना महलों में ख़ामोशी ना फूटपाथ पर
क़ब्रिस्तान में ख़ामोशी से लेटे अनेक है
बहुत चीख़ती है मेरे दिल की ख़ामोशी तन्हाई में
ख़ामोशी अच्छी है कहते अनेक है
रोये थे कभी उसकी याद में अकेले बैठकर
आँखे मेरी लाल है कहते अनेक है
@Insaniyat to aik hai hindi poem of the day